ऋषि महाजन/नूरपुर। आधुनिकता की तेज रफ्तार के बीच हिमाचल की लोकसंस्कृति और पारंपरिक वाद्य यंत्र अब धीरे-धीरे लुप्त होने लगे हैं।
कभी शादियों, मेलों और धार्मिक आयोजनों की शान रहे पिपनी, बांसुरी और बाजा जैसे वाद्य यंत्र आज केवल कुछ गिने-चुने कलाकारों तक ही सीमित रह गए हैं।
ऐसे ही कलाकारों में जसवां विधानसभा क्षेत्र के डाडासिबा निवासी कमल देव का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। नूरपुर में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान उनकी टीम ने जब पारंपरिक वाद्य प्रस्तुत किए तो वहां मौजूद दर्शक मंत्रमुग्ध हो उठे। तालियों की गड़गड़ाहट ने यह साबित कर दिया कि पुराना संगीत आज भी लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाए हुए है।
कार्यक्रम के बाद बातचीत में कमल देव ने बताया कि उनकी टीम को हिमाचल के अलग-अलग इलाकों से लगातार निमंत्रण मिलता है और इसी से वे अपनी रोज़ी-रोटी भी चला रहे हैं।
हालांकि, उन्होंने चिंता जताई कि नई पीढ़ी इन वाद्यों को सीखने और आगे बढ़ाने में रुचि नहीं दिखा रही है। उन्होंने कहा कि अगर आने वाली पीढ़ी ने इन्हें अपनाया नहीं, तो यह धरोहर आने वाले वर्षों में केवल किताबों तक ही सीमित रह जाएगी।
कमल देव की इस पारंपरिक टीम में हंसराज, आज्ञाराम, राम मूर्ति, सुरेंद्र, सुभाष और सरबजीत शामिल हैं। सभी कलाकार डाडासिवा क्षेत्र से ही ताल्लुक रखते हैं और वर्षों से लोक संगीत की इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि राज्य की लोकसंस्कृति को बचाने के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर पहल करनी होगी। कलाकारों को प्रोत्साहन, प्रशिक्षण केंद्र और मंच उपलब्ध कराना जरूरी है, ताकि आने वाली पीढ़ी भी इन वाद्यों को सीखने के लिए प्रेरित हो सके।