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Video Story - सिरमौर : बिशु मेले का खास महत्व, चार चांद लगाता है "ठोडा"

    राजगढ़। हिमाचल के सिरमौर जिला में बिशु मेला का अपना ही महत्व है। ठोडा नृत्य या खेल बिशु मेले की शान में चार चांद लगाने का काम करता है। इस दौरान देवताओं की पूजा की जाती है वहीं लोग नाच गाकर त्योहार मनाते हैं।

    देव परंपरा से जुड़े होने के कारण देवभूमि के दूर दराज इलाकों में बिशु मेले आयोजन करवाना जरूरी माना जाता है। बिशु मेला मैदानी इलाकों में मनाई जाने वाली बैसाखी के समकक्ष होता है। बिशु का त्योहार क्षेत्र में अपना खास महत्व रखता है क्योंकि इस समय सभी लोग नए कपड़े पहनते हैं। गांव के जुब्बड़ पर मेला लगता है, लेकिन मेले से पूर्व तीन दिन तक गांव के देवता को जुब्बड़ पर गाजे बाजे के साथ नंगे पांव ले कर जाते हैं।

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    बिशु की सूचना के लिए बाजा बजाया जाता है जिसे टमाकरा कहते हैं। इसमें बिशु का संगीत बजाया जाता है, यह इस बात का द्योतक है कि इस गांव में बिशु का मेला लगेगा। जिसके बाद लोग नाचते और गाते हैं। इस मौके पर पहले घर में स्वादिष्ट मीठी रोटी बनाई जाती थी जिसे मेले में मेहमानों को खिलाते थे और खुद भी खाते थे।

    बिशु मेले के दौरान देवताओं की झांकी निकाली जाती है। कुल देवता को प्रसन्न करने के लिए उन्हें उनके स्थानीय स्थान से पालकी द्वारा उनके मूल स्थान पर ले जाते हैं जोकि थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। बिशु मेले में तीर कमान से होने वाला महाभारत का सांकेतिक युद्ध अथवा ठोडा नृत्य व खेल मुख्य आकर्षण रहता है। ठोडा एक प्रकार को पारंपरिक खेल है।

     

    जब हमारी तकनीक से पहुंच बहुत दूर थी, मनोरंजन के सीमित साधन थे तब बिशु से बड़ा आयोजन पहाड़ी इलाकों में कोई नहीं माना जाता था। इनमें मनोरंजन का ज़रिया था ठोडा खेल। इस खेल में दो दल होते हैं। दोनों दल विशेष परिधान पहन कर क्षत्रिय वीरगाथा गाते व ललकारते हुए एक दूसरे पर तीरों से प्रहार करते हैं। यह प्रहार टांगों पर घुटने के नीचे किये जाते हैं, जो दल सबसे अधिक सफल प्रहार करता है उसे विजेता घोषित किया जाता है।
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    दोनों टीमें तीरकमान, डांगरे (फरसे) व लाठियों से सुसज्जित होती हैं। फरसे लहराते हुए जब ये दल पारंपरिक नृत्य करते हैं। पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ बजने वाले गीत और एक दूसरे को ललकारने वाले बोल सबका मन मोह लेते हैं। सिरमौर के अलावा हिमाचल प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में बिशु मेले लगते हैं। शिमला के चौपाल में भी महाभारत कालीन बिशु मेले को मनाए जाने की परंपरा कायम है।

    नियमानुसार केवल विशेष पोशाक अथवा सुथण पहनने वाले धनुर्धर की टांगों पर ही सूर्यास्त से पहले तक दूसरा योद्धा वार कर सकता है। इसे मूल रूप से क्षत्रियों का ही खेल माना जाता है। इन मेलों में प्राचीन काल से इस परंपरा से जुड़े परिवार ही भाग लेते हैं। पुरानी परंपरा के मुताबिक हर देवठी यानी देवी के फॉलोअर्स का अपना एक खूंद होता है। ये खूंद क्षत्रिय परिवारों के ही होते हैं और युवा ठोडा खेल अपने पूर्वजों से सीखते आ रहे हैं। हर खूंद देवी दुर्गा और कुछ कुल देवताओं के उपासक माने जाते हैं।
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