आरक्षण की प्रथा आजादी के बाद से संवैधानिक परंपरा की छाया में चल रही है। इस तरह का प्रयास समाज के दबे-कुचले तबके के लिए न्याय के सिद्धांत पर शुरू हुआ, जिस तबके को जाति और पंथ के साए में कुचला जाना माना जाता है।
यह उन दिनों की कहानी थी जहां एक विशेष स्थान की जाति व्यवस्था बहुत बंद थी और इस प्रकार निचली जातियों में आने वाले लोगों के उत्पीड़न का प्रतिनिधित्व करती थी। भारत की स्वतंत्रता ने संवैधानिक अधिकारों के नाम पर वैमनस्य की प्रथा को सद्भाव में बदल दिया।
माननीय नेताओं के निर्देशों के अनुसार एक विशेष अवधि के उन्नयन के संदर्भ में वित्तीय सहायता के माध्यम से संसाधनों, नौकरियों और शैक्षिक अवसरों के वितरण के मामले में निचली जातियों को कुछ विशेष प्रकार की वरीयता दी गई थी।
समाज के दबे-कुचले तबके के उत्थान के लिए प्रतिबद्धता का वह दौर खत्म हो गया है और कुछ वर्षों से इस तरह की तरजीह सरकार की व्यवस्था में नर्क है जो उन लोगों के लिए अभिशाप की भूमिका निभा रही है जिनकी योग्यता को चुनौती दी जा रही है। इस प्रकार समाज के पात्र वर्गों को नीचे घसीटा जा रहा है जिससे उनके लिए दरिद्रता की स्थिति निर्मित हो रही है।
आरक्षण की यह प्रथा मेधावी वर्ग के लिए दरिद्रता की स्थिति ही नहीं है, बल्कि हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए एक बड़ा झटका है, जिसका पालन-पोषण अक्षम कार्यकर्ताओं/अधिकारियों/प्रशासकों और राजनेताओं द्वारा किया जा रहा है। सामाजिक प्रणाली किसी भी नौकरी के अवसर के लिए उम्मीदवारों के चयन की मांग उनकी क्षमता और योग्यता के अनुसार करती है।
आप इस तथ्य से सहमत हों या न हों लेकिन यह कटु सत्य है कि यदि किसी संगठन में कोई अयोग्य उम्मीदवार इस आरक्षण नीति के आधार पर पद धारण करता है तो वह संगठन वर्षों तक सामाजिक विकास की दृष्टि से पीछे रह जाता है।
कुछ लोगों के लिए यह बेतुका संदेश लग सकता है या एक तरह का भ्रम लेकिन आरक्षण की इस घिसी-पिटी नीति और प्रक्रिया का गहरा प्रभाव आप हर जगह देख सकते हैं। आधुनिक युग प्रतिस्पर्धा का युग है जहां किसी भी प्रकार के आरक्षण के लिए कोई स्थान नहीं है। जय हिंद जय भारत ।
-डॉ रोशन लाल शर्मा, कियारा चांदपुर, सदर बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश)