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हिमाचल के लिए गौरव की बात : अंडमान-निकोबार में 4 जांबाजों के नाम पर द्वीप

शिमला। ‘पराक्रम दिवस’ के अवसर पर आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंडमान-निकोबार के 21 अनाम द्वीपों का नामकरण 21 परमवीर चक्र से सम्मानित योद्धाओं के नाम पर किया है। इसमें हिमाचल के चार जांबाज शामिल हैं। यह देवभूमि और वीर भूमि हिमाचल के लिए किसी गौरव से कम नहीं है। इसमें प्रथम परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा, परमवीर चक्र विजेता कैप्टन विक्रम बत्रा, सूबेदार मेजर संजय कुमार और धन सिंह थापा के नाम पर अंडमान-निकोबार के तीन द्वीपों का नामकरण किया है।
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केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि परमवीरों के नाम पर द्वीपों का यह नामकरण पूरे देश को हर्षित करने का अवसर है। वीरधरा हिमाचल के वीरों ने भी जब जब जरूरत पड़ी अपने पराक्रम से भारत भूमि की आन-बान-शान को बढ़ाया है। मेजर सोमनाथ शर्मा, कैप्टन विक्रम बत्रा, सूबेदार मेजर संजय कुमार और धन सिंह थापा के नामों पर द्वीपों का नामकरण हर हिमाचली के लिए गौरव का विषय है।
मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे। जिन्होंने अक्टूबर-नवम्बर 1947 के भारत-पाक संघर्ष में हिस्सा लिया था। उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया था। वह परमवीर चक्र पाने वाले वे प्रथम व्यक्ति हैं। सोमनाथ शर्मा जी का जन्म 31 जनवरी 1923 को हिमाचल के कांगड़ा जिला में हुआ था।

कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म हिमाचल के पालमपुर निवासी जीएल बत्रा और कमलकांता बत्रा के घर 9 सितंबर 1974 को हुआ था। दो बेटियों के बाद दो जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ। विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया।

दिसंबर 1997 में प्रशिक्षण समाप्त होने पर उन्हें 6 दिसम्बर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद विक्रम को कैप्टन बना दिया गया।
कारगिल युद्ध में  चोटी 4875 पर कब्जे की जिम्मेदारी कैप्टन विक्रम और उनकी टुकड़ी को सौंपी गई।  कैप्टन विक्रम बत्रा ने एक संर्कीण पठार के पास से शत्रु के ठिकानों पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। युद्ध में नजदीक से पांच शत्रु सैनिकों को मार गिराया। इस दौरान वह गंभीर घायल हो गए। कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद वीरगति को प्राप्त हुए।
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वहीं, सूबेदार संजय कुमार का जन्म 3 मार्च 1976 को हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के कलोल गांव में हुआ। जिन्होंने कारगिल युद्ध में एरिया फ्लैट टॉप पर कब्ज़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी इस बहादुरी के लिए उन्हें 1999 में परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। संजय कुमार चार व पांच जुलाई को कारगिल में मस्को वैली प्वाइंट पर फ्लैट टॉप पर 11 साथियों के साथ तैनात थे। यहां दुश्मन ऊपर पहाड़ी से हमला कर रहा था। इस टीम में 11 साथियों में से दो शहीद हो चुके थे, जबकि आठ गंभीर रूप से घायल थे।
संजय कुमार अपनी राइफल के साथ दुश्मनों से कड़ा मुकाबला कर रहे थे। उन्होंने कुछ पाकिस्तान सैनिकों को मार गिराया। अचानक हुए हमले को देखते हुए पाकिस्तानी सैनिक भाग खड़े हुए। संजय कुमार को भी तीन गोलियां लगी, इनमें दो उनकी टांगों में और एक गोली पीठ में लगी। घायल संजय कुमार को तत्काल सैनिक अस्पताल में भर्ती कराया गया।
जिस तरह बहादुरी के साथ युद्ध भूमि में लड़े वैसे ही अस्पताल में मौत को हराकर ठीक होकर फिर सेना में सेवाएं देने लगे। बाद में उन्हें राइफलमैन से सूबेदार के पद पर पदोन्नति दी। परमवीर चक्र पुरस्कार विजेता  संजय कुमार को एनडीए में प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया है।
कैप्टन विक्रम बत्रा सहित 21 परमवीरों के नाम पर अंडमान-निकोबार के 21 द्वीप
धन सिंह थापा का जन्म 10 अप्रैल 1928 को हिमाचल प्रदेश के शिमला में हुआ था। उनके पिता पदम सिंह थापा क्षेत्री थे। थापा को 8 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में 28 अगस्त 1949 को शामिल किया गया था। मेजर धनसिंह थापा को 1962 में परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
1962 में शुरू हुए चीन-भारतीय युद्ध के दौरान चीन ने पैनगॉन्ग झील के उत्तर में सिरिजैप और यूल पर कब्ज़ा करने के उद्देश्य से घुसपैठ शुरू की थी। सिरिजैप 1, पांगॉन्ग झील के उत्तरी किनारे पर 8 गोरखा राइफल्स की प्रथम बटालियन द्वारा स्थापित एक पोस्ट थी जो मेजर धन सिंह थापा की कमान में थी। जल्द ही यह पोस्ट चीनी सेनाओं द्वारा घेर लिया गया था। मेजर थापा और उनके सैनिकों ने इस पोस्ट पर होने वाले तीन आक्रमणों को असफल कर दिया।
थापा सहित बचे लोगों को युद्ध के कैदियों के रूप में कैद कर लिया गया था। हालांकि, युद्ध की समाप्ति पर उन्हें मुक्त भी कर दिया गया था। देश के लिए अपने महान कार्यों और अपने सैनिकों को युद्ध के दौरान प्रेरित करने के उनके प्रयासों के कारण उन्हें भारत सरकार द्वारा वर्ष 1962 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया, किन्तु वर्ष 1963 में उनके जीवित वापस आ जाने पर, आवश्यक संशोधन किये गए।
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