बचपन से ही नहीं हैं दोनों हाथ, जीत चुकी हैं 10 मेडल
नई दिल्ली। भारत की बेटी पैरा-तीरंदाज शीतल देवी को अर्जुन अवार्ड मिला है। उन्होंने मंगलवार को राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से अर्जुन अवार्ड (Arjuna Award) प्राप्त किया। शीतल देवी ने दोनों बाजुओं के बिना यहां तक का सफर तय किया है।
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जम्मू-कश्मीर के छोटे से गांव की बेटी ने पैरों का अपनी ताकत बनाकर तीरंदाजी में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और अपने माता शक्ति देवी-पिता मान सिंह सहित देश और अपने गांव का के लोगों का सिर गर्व से ऊंचा किया। उन्होंने पैरों से सटीक निशाना साधकर तीरंदाजी में 6 स्वर्ण, 3 रजत और एक कांस्य पद जीता है।
शीतल देवी विश्व की एक मात्र महिला पैरा-तीरंदाज हैं। वर्ल्ड रैंकिंग में नंबर हैं। पैरा में चैंपियन बनने के बाद अब उनका सपना एवल (जिन खिलाड़ियों के हाथ होते हैं) में चैंपियन बनने का है।
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बता दें कि 16 वर्षीय शीतल देवी जम्मू-कश्मीर के जिला किश्तवाड़ के गांव लोईधार की निवासी हैं। उनके पिता खेतीबाड़ी करते हैं और माता बकरियां चराती हैं। शीतल देवी के जन्म से ही दोनों बाजू नहीं हैं। किसी बीमारी के चलते उनके बाजुओं की ग्रोथ नहीं हो पाई।
इसके बावजूद शीतल देवी ने हिम्मत नहीं हारी और साबित कर दिया कि बाजुओं की ताकत ही नहीं, इतिहास बनाने के लिए हौंसलों की उड़ान भी काफी है। वह बचपन से ही पैरों से कार्य करती थीं।
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लिखने का काम भी पैरों से करती थीं। यही नहीं शीतल देवी अन्य बच्चों के साथ मस्ती करते हुए पेड़ों पर भी चढ़ती थीं। उन्होंने बाजू न होने को अपनी कमजोरी नहीं बनाया और तीरंदाजी में कुछ कर दिखाने की ठान ली।
कोच अभिलाषा चौधरी ने शीतल देवी की प्रतिभा का परखा और उन्हें इस काबिल बनाया कि वह तीरंदाजी में कुछ कर दिखाए। शीतल देवी ने कटरा में श्री माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के स्पोर्ट्स स्टेडियम में अर्चरी अकादमी में दाखिला लिया। इस दौरान उन्होंने कड़ी मेहनत की।
कड़ी मेहनत के फलस्वरूप शीतल देवी ने पैरों से सटीक निशाना साधकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। शीतल देवी ने पिछले साल तीरंदाज में पैरा एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल अपने नाम किया।
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इसके चलते उन्हें अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वर्ल्ड रैंकिंग में नंबर वन शीतल का टारगेट अब पेरिस में होने वाले पैरालंपिक गेम्स पर हैं। इसके लिए उन्होंने क्वालीफाई कर लिया है।
शीतल देवी का कहना है कि बचपन में उनके भाई उन्हें लकड़ी का धनुष बनाकर देते थे। उससे खेलने में उसे बड़ा मजा आता था। जब वह अपने इलाज के लिए बैंगलोर गई तो वहां प्रति दीदी मिलीं। उन्होंने उन्हें खेल के बारे में बताया और उनके जैसे लोगों से मिलाया।
मुझे तब पता चला कि उनके जैसे और भी लोग हैं, वह ही अकेली नहीं हैं। इसके बाद उन्होंने देश के लिए कुछ करने की सोची। 15 साल की उम्र में ट्रेनिंग शुरू की।
उन्हें बचपन से ही स्कूल पसंद था। लोगों को विश्वास नहीं होता था कि वह तीरंदाजी में कुछ कर पाएंगी। पर आज वहीं लोग घर आकर उनके माता-पिता को मिठाई खिलाते हैं।
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